रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्में और अंत में शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लेकर श्रीहरि के हाथों मोक्ष द्वार गए

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र:
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र:

पुराणों अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुल जीवीह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुष्ठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार , शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि हुवे
सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार
ब्रह्मा की उत्पत्ति जल में उत्पन्न कमल पर हुई। उन्होंने कमल के डंठल के अंदर उतरकर उसका मूल जानने का प्रयास किया लेनिक नहीं जान पाए। तब वह पुन: कमल पर विराजमान होकर सोचने लगे कि मैं कहां से और कैसे उत्पन्न हुआ तभी एक शब्द सुनाई दिया ‘तपस तपस’। तब ब्रह्माजी ने सौ वर्षों तक वहीं कमल आसन पर नेत्र मूंद कर तपस्या की। ब्रह्माजी को भगवान विष्णुजी की प्रेरणा से सृष्टि रचना का आदेश मिला। ब्रह्मा जी ने सर्व प्रथम चार पुत्रों की उत्पत्ति की। सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार। ब्रह्माजी ने इन्हें सृष्टि रचना की आदेश दिया। परंतु ये चारों भी सृष्टि रचना त्याग कर तपस्या में लीन हो गए फिर ब्रह्माजी ने विष्णुजी की शक्ति से 10 तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। उनके मुख से पुत्री वाग्देवी की उत्पत्ति हुई। फिर ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो अंश किए एक अंश से पुरुषरूप मनु और दूसरे से स्त्री रूप शतरूपा को जन्म दिया। मनु और शतरुपा की संतानों की रक्षा के लिए श्रीहरि ने वराह रूप धारण कर धरती का उद्धार किया। धर्म ग्रंथों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं। यह सभी सर्वदा पांच वर्ष आयु के ही रहे। न कभी जवान हुए ना बुढ़े। चार भाई एक साथ ही रहते हैं और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं। चारों जहां भी जाते भगवान विष्णु का भजन करते उनके भजन-कीर्तन में ध्यानस्थ रहते थे। वे सर्वदा उदासीन भाव से युक्त होकर भजन साधन में मग्न रहते थे।
इन्हीं चारों कुमारों से उदासीन भक्ति, ज्ञान तथा विवेक का मार्ग शुरू हुआ जो आज तक उदासीन अखाड़ा के नाम जाना जाता है।
प्रलयकाल के समय जो वेद शास्त्र लीन हो गए थे इन चार कुमारों भगवान विष्णु के हंसावतार में पुनः प्राप्त किया।
सनाकादि ऋषियों ने अपना प्रथम उपदेश नारदजी को दिया था।
पुराणों में इन चारों कुमारों के श्राप और वरदान देने के कथा प्रचलित हैं। एक बार विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने बालको को अंदर जाने से रोक दिया था जिसके चलते उन्होंने इन्हें धरती पर 3 जन्मों तक राक्षस योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया था। दोनों ही भाई बाद में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में जन्में। फिर रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्में और अंत में शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लेकर श्रीहरि के हाथों मोक्ष द्वार गए।